नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
जा के तब कोई मसीहाई पे मजबूर हुआ
Mir Taqi Mir
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Mohsin Naqvi
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कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
न-जाने कैसी निगाहों से मौत ने देखा
कुछ बे-नाम तअल्लुक़ जिन को नाम अच्छा सा देने में
ख़ाली हाथों में मोहब्बत बाँटती रह जाऊँगी
सर-ए-ख़याल मैं जब भूल भी गई कि मैं हूँ
रिसाइकिलबिन
ख़ुद को बे-कल किया औरों को सताए रक्खा
एक तअल्लुक़ जान के मिलते हैं वर्ना
कुल्लिया
पहेली
आज सोचा है कि ख़ुद रस्ते बनाना सीख लूँ
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते