न-जाने कैसी निगाहों से मौत ने देखा
हुई है नींद से बेदार ज़िंदगी कि मैं हूँ
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नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते
बदन और ज़ेहन मिल बैठे हैं फिर से
कोई इम्काँ तो न था उस का मगर चाहता था
कुछ बे-नाम तअल्लुक़ जिन को नाम अच्छा सा देने में
उस के आने की दुआ होती है दिन भर लेकिन
रिसाइकिलबिन
तू ने पूछा है मिरे दोस्त!
आज सोचा है कि ख़ुद रस्ते बनाना सीख लूँ
ख़ुद को बे-कल किया औरों को सताए रक्खा
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती