मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
मोहब्बत में तो पेश-ओ-पस की गुंजाइश नहीं रहती
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मुश्किल
कुल्लिया
ऐसा क्या अंधेर मचा है मेरे ज़ख़्म नहीं भरते
जाने फिर मुँह में ज़बाँ रखने का मसरफ़ क्या है
रिसाइकिलबिन
सुनते रहते हैं फ़क़त कुछ वो नहीं कह सकते
ख़ाली हाथों में मोहब्बत बाँटती रह जाऊँगी
एक तअल्लुक़ जान के मिलते हैं वर्ना
नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
ख़ुद को बे-कल किया औरों को सताए रक्खा