कभी कभी तो अच्छा-ख़ासा चलते चलते
यूँ लगता है आगे रस्ता कोई नहीं है
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ख़ुद को बे-कल किया औरों को सताए रक्खा
मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
तू ने पूछा है मिरे दोस्त!
उस के आने की दुआ होती है दिन भर लेकिन
रिसाइकिलबिन
उस रस्ते पर जाते देखा कोई नहीं है
न-जाने कैसी निगाहों से मौत ने देखा
मुश्किल
कुल्लिया
सर-ए-ख़याल मैं जब भूल भी गई कि मैं हूँ
जाने फिर मुँह में ज़बाँ रखने का मसरफ़ क्या है