इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
मैं कोई रात नहीं हूँ जो सहर तक जाऊँ
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अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
ख़रीदने के लिए उस को बिक गया ख़ुद ही
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे
बदन क़ुबूल है उर्यानियत का मारा हुआ
इक दरीचे की तमन्ना मुझे दूभर हुई है
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
शब के पुर-हौल मनाज़िर से बचा ले मुझ को