ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म सुख़न और भी होता है वसीअ
अश्क-दर-अश्क उभरती है क़लमकार की गूँज
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यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
इक एक हर्फ़ की रखनी है आबरू मुझ को
कौन कहता है कि यूँही राज़दार उस ने किया
ग़म-ए-हयात मिटाना है रो के देखते हैं
हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
अब ज़मीनों को बिछाए कि फ़लक को ओढ़े
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
बेड़ियाँ डाल के परछाईं की पैरों में मिरे