हूँ पारसा तिरे पहलू में शब गुज़ार के भी
मैं बे-लिबास नहीं पैरहन उतार के भी
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अपने जीने के हम अस्बाब दिखाते हैं तुम्हें
यक़ीं की धूप में साया भी कुछ गुमान का है
कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
हम आदमी की तरह जी रहे हैं सदियों से
इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
यूँ तिरी चाप से तहरीक-ए-सफ़र टूटती है
तुझ को पाने के लिए ख़ुद से गुज़र तक जाऊँ
ख़्वाहिश-ए-तख़्त न अब दिरहम-ओ-दीनार की गूँज
इक धुँदलका हूँ ज़रा देर में छट जाऊँगा
मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना