अपनी ख़ुद्दारी सलामत दिल का आलम कुछ सही
जिस जगह से उठ चुके हैं उस जगह फिर जाएँ क्या
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यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
ये भी इक रात कट ही जाएगी
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
नज़र से देख तो साक़ी इक आईना बनाया है
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
साहिल पे क़ैद लाखों सफ़ीनों के वास्ते
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा