ये भी इक रात कट ही जाएगी
सुब्ह-ए-फ़र्दा की मुंतज़िर है निगाह
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बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
माल-ओ-ज़र अहल-ए-दुवल सामने यूँ गिनते हैं
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
दिल ने सीने में कुछ क़रार लिया
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
अपनी ख़ुद्दारी सलामत दिल का आलम कुछ सही
नज़र से देख तो साक़ी इक आईना बनाया है