नज़र से देख तो साक़ी इक आईना बनाया है
शिकस्ता शीशा-ओ-साग़र के टुकड़े जोड़ कर हम ने
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मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
वुसअ'त-ए-दामान-ए-दिल को ग़म तुम्हारा मिल गया
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
माल-ओ-ज़र अहल-ए-दुवल सामने यूँ गिनते हैं
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
सितारे की तरह सीने में दिल डूबा किया लेकिन
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम