ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
ये 'सालिक'-ए-बेबाक का मातम तो नहीं है
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आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
ये भी इक रात कट ही जाएगी
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में साक़ी हम दोनों ही मुजरिम हैं शायद
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
धुआँ देता है दामान-ए-मोहब्बत
जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा