बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
गुलों के रुख़ पे छिड़का है बहुत ख़ून-ए-जिगर हम ने
Wasi Shah
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जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
अपनी ख़ुद्दारी सलामत दिल का आलम कुछ सही
मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
साहिल पे क़ैद लाखों सफ़ीनों के वास्ते
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई