महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
हाथ से ज़र्फ़-ए-तलब छूट गया हो जैसे
Gulzar
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नज़र से देख तो साक़ी इक आईना बनाया है
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
ये भी इक रात कट ही जाएगी
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
खनक जाते हैं जब साग़र तो पहरों कान बजते हैं
दिल ने सीने में कुछ क़रार लिया
अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
सितारे की तरह सीने में दिल डूबा किया लेकिन
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
डरता रहता हूँ हम-नशीनों में