आज भी है वही मक़ाम आज भी लब पे उन का नाम
मंज़िल-ए-बे-शुमार-गाम अपने सफ़र को क्या करूँ
Habib Jalib
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मिट चुके जो भी थे तौबा-शिकनी के अस्बाब
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
चाहा था ठोकरों में गुज़र जाए ज़िंदगी
ये भी इक रात कट ही जाएगी
वुसअ'त-ए-दामान-ए-दिल को ग़म तुम्हारा मिल गया
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
खींच भी लीजिए अच्छा तो है तस्वीर-ए-जुनूँ
निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने