निगाह-ए-शौक़ से लाखों बना डाले हैं दर हम ने
क़फ़स में भी नहीं मानी शिकस्त-ए-बाल-ओ-पर हम ने
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अब ऐसी बातें कोई करे जो सब के मन को लुभा जाएँ
निगाह-ए-मेहर कहाँ की वो बरहमी भी गई
बढ़ते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद क़दम अज़्म-ए-सफ़र को क्या करूँ
ज़िंदाँ में आचानक है ये क्या शोर-ए-सलासिल
मंज़िल न मिली कश्मकश-ए-अहल-ए-नज़र में
नाख़ुदा डूबने वालों की तरफ़ मुड़ के न देख
यूँही इंसानों के शहरों में मिला अपना वजूद
महव यूँ हो गए अल्फ़ाज़-ए-दुआ वक़्त-ए-दुआ
जो तेरी बज़्म से उट्ठा वो इस तरह उट्ठा
कही किसी से न रूदाद-ए-ज़िंदगी मैं ने
बहार-ए-गुलिस्ताँ हम को न पहचाने तअज्जुब है
साहिल पे क़ैद लाखों सफ़ीनों के वास्ते