बू-ए-गुल फूलों में रहती थी मगर रह न सकी
मैं तो काँटों में रहा और परेशाँ न हुआ
Gulzar
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सुनने वाले रो दिए सुन कर मरीज़-ए-ग़म का हाल
उस के सुनने के लिए जम'अ हुआ है महशर
जिस शख़्स के जीते जी पूछा न गया 'साक़िब'
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
इबरत-ए-दहर हो गया जब से छुपा मज़ार में
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
न आसमान है साकित न दिल ठहरता है
आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे
अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ