आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
अब भी अगर आ जाओ तो ये रात बड़ी है
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कहाँ तक जफ़ा हुस्न वालों की सहते
मुट्ठियों में ख़ाक ले कर दोस्त आए वक़्त-ए-दफ़्न
ये आह-ओ-फ़ुग़ाँ क्यूँ है दिल-ए-ज़ार के आगे
कहने को मुश्त-ए-पर की असीरी तो थी मगर
आप उठ रहे हैं क्यूँ मिरे आज़ार देख कर
अपने दिल-ए-बेताब से मैं ख़ुद हूँ परेशाँ
चल ऐ हम-दम ज़रा साज़-ए-तरब की छेड़ भी सुन लें
दीदा-ए-दोस्त तिरी चश्म-नुमाई की क़सम
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मिरे
सोने वालों को क्या ख़बर ऐ हिज्र
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
हिज्र की शब नाला-ए-दिल वो सदा देने लगे