जो चाहती दुनिया है वो मुझ से नहीं होगा
समझौता कोई ख़्वाब के बदले नहीं होगा
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गुम-शुदा
एक मंज़र
तुझ से बिछड़े हैं तो अब किस से मिलाती है हमें
आँखों को सब की नींद भी दी ख़्वाब भी दिए
तमाम ख़ल्क़-ए-ख़ुदा देख के ये हैराँ है
सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं
ये जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
उम्मीद ओ बीम
किस किस तरह से मुझ को न रुस्वा किया गया
दरिया-ए-ख़ूँ