जम्अ करते रहे जो अपने को ज़र्रा ज़र्रा
वो ये क्या जानें बिखरने में सुकूँ कितना है
Jaun Eliya
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Habib Jalib
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Rahat Indori
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Gulzar
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ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते
कहिए तो आसमाँ को ज़मीं पर उतार लाएँ
हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है
देख दरिया को कि तुग़्यानी में है
बहते दरियाओं में पानी की कमी देखना है
वक़्त को क्यूँ भला बुरा कहिए
फ़रेब-दर-फ़रेब
है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
अब तो ले दे के यही काम है इन आँखों का
नहीं है मुझ से तअ'ल्लुक़ कोई तो ऐसा क्यूँ