ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
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आँख की ये एक हसरत थी कि बस पूरी हुई
पहले नहाई ओस में फिर आँसुओं में रात
सभी को ग़म है समुंदर के ख़ुश्क होने का
ऐसे हिज्र के मौसम कब कब आते हैं
गुम-शुदा
जिस्म की कश्ती में आ
भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
इक सिर्फ़ हमीं मय को आँखों से पिलाते हैं
एक और मौत
दरिया-ए-ख़ूँ
ये क़ाफ़िले यादों के कहीं खो गए होते