आगे क्या तुम सा जहाँ में कोई महबूब न था
क्या तुम्हीं ख़ूब बने और कोई ख़ूब न था
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ज़र्फ़ टूटा तो वस्ल होता है
रात उस की महफ़िल में सर से जल के पाँव तक
अभी मस्जिद-नशीन-ए-तारुम-ए-अफ़्लाक हो जावे
दे के दिल हाथ तिरे अपने हाथ
मेरा माशूक़ है मज़ों में भरा
एक मुद्दत से तलबगार हूँ किन का इन का
इश्क़ के शहर की कुछ आब-ओ-हवा और ही है
कभू पहुँची न उस के दिल तलक रह ही में थक बैठी
वहशत से हर सुख़न मिरा गोया ग़ज़ाला है
कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला
गर भला मानस है तो ख़ंदों से तू मिल मिल न हँस
मैं ज़ात का उस की आश्ना हूँ