दिल-ए-उश्शाक़ परिंदों की तरह उड़ते हैं
इस बयाबान में क्या एक भी सय्याद नहीं
Habib Jalib
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हाजत चराग़ की है कब अंजुमन में दिल के
ख़ुदा को जिस से पहुँचें हैं वो और ही राह है ज़ाहिद
पहन कर जामा बसंती जो वो निकला घर सूँ
हक़ से मिलना गेरवे कपड़ों उपर मौक़ूफ़ नईं
क्या मदरसे में दहर के उल्टी हवा बही
हम छनालों की छोड़ दी यारी
इन दिनों सब को हुआ है साफ़-गोई का तलाश
ताबे रज़ा का उस की अज़ल सीं किया मुझे
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
इश्क़ की राह में मैं मस्त की तरह
ज़र्फ़ टूटा तो वस्ल होता है
जो कोई कि यार-ओ-आश्ना है