उम्र का एक और साल गया
वक़्त फिर हम पे ख़ाक डाल गया
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अश्क पीने के लिए ख़ाक उड़ाने के लिए
सफ़र से लौट जाना चाहता है
झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
कोई स्कूल की घंटी बजा दे
उल्टे सीधे सपने पाले बैठे हैं
न कोई ख़्वाब कमाया न आँख ख़ाली हुई
चाहत की लौ को मद्धम कर देता है
अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था
वफ़ादारों पे आफ़त आ रही है
इक बीमार वसीयत करने वाला है
मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग