तेरी आँखें जिसे चाहें उसे अपना कर लें
जी में आता है कि फूलों की उड़ा दूँ ख़ुशबू
उश्शाक़ के आगे न लड़ा ग़ैरों से आँखें
इस पर्दे में ये हुस्न का आलम है इलाही
उस ने माँगा जो दिल दिए ही बनी
क़दमों पे गिरा तो हट के बोले
दुख़्त-ए-रज़ ज़ाहिद से बोली मुझ से घबराते हो क्यूँ
पामालियों का ज़ीना है अर्श से भी ऊँचा
तसव्वुर ने तिरे आबाद जब से घर किया मेरा
अब तो मय-ख़ानों से भी कुछ बढ़ कर
अल्लाह अल्लाह ख़ुसूसिय्यत-ए-ज़ात-ए-हसनैन
इंतिहा-ए-मअरिफ़त से ऐ 'शरफ़'