ख़्वाब टूटे पड़े हैं सब मेरे
मैं हूँ और हैरतों का सामाँ है
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उस के जाने पे ये एहसास हुआ है 'शाहिद'
फ़ुग़ान-ए-रूह कोई किस तरह सुनाए उसे
कुछ ऐसे दौर भी ताहम गिरफ़्त में आए
दिल की बस्ती पे किसी दर्द का साया भी नहीं
शौक़-ए-आवारा यूँही ख़ाक-बसर जाएगा
खुला न उस पे कभी मेरी आँख का मंज़र
बजा है ख़्वाब-नवर्दी प ख़्वाब ऐसे हों
हूँ किस मक़ाम पे दिल में तिरे ख़बर न लगे
ऐसा कुछ गर्दिश-ए-दौराँ ने रखा है मसरूफ़
चलते चलते चले आए हैं परेशानी में
ये रोज़ ओ शब का तसलसुल रवाँ-दवाँ ही रहा