ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ
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आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ
नाख़ुदा हो कि ख़ुदा देखते रह जाते हैं
अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे
इक लहू की बूँद थी लेकिन कई आँखों में थी
मैं भी आवारा हूँ तेरे सात आवारा हवा
अजब पागल है दिल कार-ए-जहाँ बानी में रहता है
बस एक बूँद थी औराक़-ए-जाँ में फैल गई
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
उस ने सोचा भी नहीं था कभी ऐसा होगा
रात हुई फिर हम से इक नादानी थोड़ी सी
न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़