ऐ नूर-ए-नज़र मुंतज़िर-ए-वस्ल हूँ आ जा
दो पाट पलक के नहीं दरवाज़ा हुआ महज़
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हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
सीमाब जल गया तो उसे गर्द बोलिए
नहीं बख़्शी है कैफ़िय्यत नसीहत ख़ुश्क ज़ाहिद की
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
दिलदार की कशिश ने ऐंचा है मन हमारा
जान ओ दिल सीं मैं गिरफ़्तार हूँ किन का उन का
इस अदब-गाह कूँ तूँ मस्जिद-ए-जामे मत बूझ
जिस कूँ पिव के हिज्र का बैराग है
क़ातिल ने अदा का किया जब वार उछल कर
वहशत को मिरी देख कि मजनूँ ने कहा बस
ख़ूब बूझा हूँ मैं उस यार कूँ कुइ क्या जाने