डोरे नहीं हैं सुर्ख़ तिरी चश्म-ए-मस्त में
शायद चढ़ा है ख़ून किसी बे-गुनाह का
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कभी सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हुआ कि चमन ज़ुहूर का जल गया
ताज़ा रख आब-ए-मेहरबानी सीं
दिल ले गया है मुझ कूँ दे उम्मीद-ए-दिल-दही
मज्लिस-ए-ऐश गर्म हो या-रब
हर हर वरक़ पे क्यूँ कि लिखूँ दास्तान-ए-हिज्र
इश्क़ दोनों तरफ़ सूँ होता है
मुझ पर ऐ महरम-ए-जाँ पर्दा-ए-असरार कूँ खोल
पेच खा खा कर हमारी आह में गिर्हें पड़ीं
मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
अमल सें मय-परस्तों के तुझे क्या काम ऐ वाइ'ज़
अश्क-ए-ख़ूनीं है शफ़क़ आज मिरी आँखों में
क्या बला का है नशा इश्क़ के पैमाने में