इंसाँ में रूह-ए-आदमिय्यत भी नहीं
हैवाँ ही बन जाए ये हिम्मत भी नहीं
कल अपने उरूज पे थी हैरत उस को
आज अपने ज़वाल पे नदामत भी नहीं
Faiz Ahmad Faiz
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रस्म-ए-मेहर-ओ-वफ़ा की बात करें
नज़र में ढल के उभरते हैं दिल के अफ़्साने
जवानी के ज़माने याद आए
कितनी हंगामा-ख़ू तमन्नाएँ
इस आलम-ए-वीराँ में क्या अंजुमन-आराई
ख़ामोशी का राज़ खोलना भी सीखो
आज 'तबस्सुम' सब के लब पर
बंद हो जाए मिरी आँख अगर
हर ज़र्रा उभर के कह रहा है
मेरा ख़ुदा
तंहाई
जब अश्क तिरी याद में आँखों से ढले हैं