अहरमन का रक़्स-ए-वहशत हर गली हर मोड़ पर
बरबरिय्यत देख कर है ख़ुद क़ज़ा सहमी हुई
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उस से बछड़ा तो यूँ लगा जैसे
किस को ख़बर ये हस्ती क्या है कितनी हक़ीक़त कितना ख़्वाब
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो कुछ तो दिल का हाल कहो
आज फिर वक़्त कोई अपनी निशानी माँगे
फिर कोई चोट उभरी दिल में कसक सी जागी
क्या तुम भी तरीक़ा नया ईजाद करो हो
ख़याल-ओ-ख़्वाब की अब रहगुज़र में रहता है
तुझ से टूटा रब्त तो फिर और क्या रह जाएगा
अक़ब से वार था आख़िर मैं आह क्या करता
ये ज़ाद-ए-राह हमेशा सफ़र में रख लेना
'शकील' हिज्र के ज़ीनों पे रुक गईं यादें