'शकील' हिज्र के ज़ीनों पे रुक गईं यादें
इसी मक़ाम पर आ कर ठहर गई शब भी
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फिर कोई चोट उभरी दिल में कसक सी जागी
उस से भी ऐसी ख़ता हो ये ज़रूरी तो नहीं
मैं कर्ब-ए-बुत-तराशी-ए-आज़र में क़ैद था
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो कुछ तो दिल का हाल कहो
आज फिर वक़्त कोई अपनी निशानी माँगे
ये ज़ाद-ए-राह हमेशा सफ़र में रख लेना
किन हवालों में आ के उलझा हूँ
तुझ से टूटा रब्त तो फिर और क्या रह जाएगा
क्या तुम भी तरीक़ा नया ईजाद करो हो
बैठे रहेंगे थाम के कब तक यूँ ख़ाली पैमाने लोग