उस से बछड़ा तो यूँ लगा जैसे
कोई मुझ में बिखर गया साहब
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बैठे रहेंगे थाम के कब तक यूँ ख़ाली पैमाने लोग
मैं कर्ब-ए-बुत-तराशी-ए-आज़र में क़ैद था
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की मरे ज़िक्र पर झेंप जाती तो होगी
अहरमन का रक़्स-ए-वहशत हर गली हर मोड़ पर
रिश्ता रहा अजीब मिरा ज़िंदगी के साथ
गर्द-ए-सफ़र के साथ था वाबस्ता इंतिज़ार
फिर कोई चोट उभरी दिल में कसक सी जागी
रेज़ा रेज़ा जैसे कोई टूट गया है मेरे अंदर
तुझ से टूटा रब्त तो फिर और क्या रह जाएगा
ये ज़ाद-ए-राह हमेशा सफ़र में रख लेना
इक तमन्ना है ख़मोशी के कटहरे कितने