हो हिन्द का मद्ह-ख़्वाँ बरस में दो बार
है इशरत-ए-राएगाँ बरस में दो बार
नौ-रोज़ और उस के बा'द 'नाज़िम' बरसात
है फ़स्ल-ए-बहार यहाँ बरस में दो बार
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है दौर-ए-फ़लक ज़ोफ़ में पेश-ए-नज़र अपने
चले हो दश्त को 'नाज़िम' अगर मिले मजनूँ
क़ाज़ी के मुँह पे मारी है बोतल शराब की
है जल्वा-फ़रोशी की दुकाँ जो ये अब इसी ने
बे दिए ले उड़ा कबूतर ख़त
फूँक दो याँ गर ख़स-ओ-ख़ाशाक हैं
फैला के तसव्वुर के असर को मैं ने
जब गुज़रती है शब-ए-हिज्र मैं जी उठता हूँ
ख़रीदारी है शहद ओ शीर ओ क़स्र ओ हूर ओ ग़िल्माँ की
है आईना-ख़ाने में तिरा ज़ौक़-फ़ज़ा रक़्स
एक है जब मरजा-ए-इस्लाम-ओ-कुफ़्र
मोहताज नहीं क़ाफ़िला आवाज़-ए-दरा का