ज़िंदगी से भी कब हुए मग़्लूब
अपने उस्लूब पर ही जीते थे
हर हवाले से मुनफ़रिद 'ग़ालिब'
दाढ़ी रखते शराब पीते थे
Mir Taqi Mir
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मीरज़ा 'ग़ालिब'
उन के फाटक में यूँ खड़े हैं हम
तन-आसानी नहीं जाती रिया-कारी नहीं जाती
साहब की बिपता
ख़राबी
चीज़ मिलती है ज़र्फ़ की हद तक
यक़ीं के भी क्या क्या हिजाबात हैं
मेरा इंतिख़ाबी मंशूर
हज़रत-ए-इक़बाल का शाहीं तो हम से उड़ चुका
फ़र्द
जब्र ओ जहालत
हँस मगर हँसने से पहले सोच ले