तक रहा है ये कोई सोने की चिड़िया आ फँसे
सोहबत-ए-शैख़ में तू रात को जाया मत कर
ये जो हैं अहल-ए-रिया आज फ़क़ीरों के बीच
हिज्र में उस बुत-ए-काफ़िर के तड़पते हैं पड़े
किसी गुल में नहीं पाने की तू बू-ए-वफ़ा हरगिज़
साक़ी हो और चमन हो मीना हो और हम हों
रिंद वाइज़ से क्यूँ कि सरबर हो
है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
मैं हो के तिरे ग़म से नाशाद बहुत रोया
ऐ मर्द-ए-ख़ुदा हो तू परस्तार बुताँ का
ख़ूबाँ जो पहनते हैं निपट तंग चोलियाँ
लड़का जो ख़ूब-रू है सो मुझ से बचा नहीं