बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
देखना पड़ता है क्या क्या देखिए
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रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए
दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से
क्या है कि आज चलते हो कतरा के राह से
शौक़ फिर कूचा-ए-जानाँ का सताता है मुझे
देखना वो गिर्या-ए-हसरत-मआल आ ही गया
कहते हो अब मिरे मज़लूम पे बेदाद न हो
मैं ने माना काम है नाला दिल-ए-नाशाद का
नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
दिल तोड़ दिया तुम ने मेरा अब जोड़ चुके तुम टूटे को
तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया