मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
कभी उस को भी समझाया तो होता
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जा बैठते हो ग़ैरों में ग़ैरत नहीं आती
ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
याद में अपने यार-ए-जानी की
अल्लाह ऐ बुतो हमें दिखलाए लखनऊ
ऐ नसीम-ए-सहरी हम तो हवा होते हैं
उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
बुतो ख़ुदा से डरो संग दिल सिवा न करो
सुना है कूच तो उन का पर इस को क्या कहिए
सुन रक्खो उसे दिल का लगाना नहीं अच्छा
बराए-सैर मुझ सा रिंद मय-ख़ाने में गर आए