ऐ शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है
हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की
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रक़ीबों को हमराह लाना न छोड़ा
जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो
है लुत्फ़ तग़ाफ़ुल में या जी के जलाने में
मिलने का नहीं रिज़्क़-ए-मुक़द्दर से सिवा और
आज आए थे घड़ी भर को 'ज़हीर'-ए-नाकाम
दिल को आज़ार लगा वो कि छुपा भी न सकूँ
कुफ़्र में भी हम रहे क़िस्मत से ईमाँ की तरफ़
अभी से आ गईं नाम-ए-ख़ुदा हैं शोख़ियाँ क्या-क्या
गेसू से अंबरी है सबा और सबा से हम
ब'अद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही
भूल कर हरगिज़ न लेते हम ज़बाँ से नाम-ए-इश्क़
किस मुँह से हाथ उठाएँ फ़लक की तरफ़ 'ज़हीर'