भटक जाती हैं तुम से दूर चेहरों के तआक़ुब में
जो तुम चाहो मिरी आँखों पे अपनी उँगलियाँ रख दो
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ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था
शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
परिंदे लौट आए
अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए
हम कहाँ आ गए