Heart Broken Poetry of Ahmad Faraz (page 4)

Heart Broken Poetry of Ahmad Faraz (page 4)
नामअहमद फ़राज़
अंग्रेज़ी नामAhmad Faraz
जन्म की तारीख1931
मौत की तिथि2008

तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूँ

तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़

तिरा क़ुर्ब था कि फ़िराक़ था वही तेरी जल्वागरी रही

तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को

तड़प उठूँ भी तो ज़ालिम तिरी दुहाई न दूँ

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं

सुकूत-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है क़रीब आ जाओ

सू-ए-फ़लक न जानिब-ए-महताब देखना

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते

शगुफ़्त-ए-गुल की सदा में रंग-ए-चमन में आओ

सारा शहर बिलकता है

साक़िया एक नज़र जाम से पहले पहले

सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की

सभी कहें मिरे ग़म-ख़्वार के अलावा भी

सब क़रीने उसी दिलदार के रख देते हैं

सब लोग लिए संग-ए-मलामत निकल आए

रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ

रात के पिछले पहर रोने के आदी रोए

क़ुर्ब-ए-जानाँ का न मय-ख़ाने का मौसम आया

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

क़ुर्बत भी नहीं दिल से उतर भी नहीं जाता

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे

नज़र बुझी तो करिश्मे भी रोज़-ओ-शब के गए

न तेरा क़ुर्ब न बादा है क्या किया जाए

न सह सका जब मसाफ़तों के अज़ाब सारे

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं

न दिल से आह न लब से सदा निकलती है

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का

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