पहले पहले हवस इक-आध दुकाँ खोलती है
फिर तो बाज़ार के बाज़ार से लग जाते हैं
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ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
हम तो ख़ुश थे कि चलो दिल का जुनूँ कुछ कम है
ये शहर सेहर-ज़दा है सदा किसी की नहीं
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
बन-बास
नासेहा तुझ को ख़बर क्या कि मोहब्बत क्या है
हर तरह की बे-सर-ओ-सामानियों के बावजूद
था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी
बन-बास की एक शाम
भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ
मैं ने देखा है बहारों में चमन को जलते
जिस्म शो'ला है जभी जामा-ए-सादा पहना