दिल को बर्बाद किए जाती है
ग़म ब-दस्तूर दिए जाती है
मर चुकीं सारी उमीदें 'अख़्तर'
आरज़ू है कि जिए जाती है
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कर दिया हाफ़िज़े में हश्र बपा
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
हवाएँ ख़ुनुक चाँदनी पुर-सुकूँ
किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है
गुलशन-ए-आरज़ू की दीद के ब'अद
दूसरों का दर्द 'अख़्तर' मेरे दिल का दर्द है
हल्की हल्की फुवार के दौरान में
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
नसीम, फूलों की रौनक़, खिले हुए तारे
किसी ख़याल में मदहोश जा रहा था मैं
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया