हमेशा हात में रहते हैं फूल उन के लिए
किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं
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ठहर सकती है कहाँ उस रुख़-ए-ताबाँ पे नज़र
न सह सकूँगा ग़म-ए-ज़ात गो अकेला मैं
मुझे ये जुस्तुजू क्यूँ हो कि क्या हूँ और किया था मैं
कोई ज़ंजीर नहीं तार-ए-नज़र से मज़बूत
कुछ दिन तो कर तआ'वुन ऐ ख़ुश-सिफ़ात मुझ से
मैं अपने-आप से पीछा छुड़ा के
मेरे घर के तमाम दरवाज़े
मैं ख़ाक हूँ आब हूँ हवा हूँ
चले आया करो मेरी तरफ़ भी!
सभी ज़िंदगी के मज़े लूटते हैं
जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती
मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक