हैं पत्थरों की ज़द पे तुम्हारी गली में हम
क्या आए थे यहाँ इसी बरसात के लिए
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सामने आ कर वो क्या रहने लगा
अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ
आदमी के लिए रोना है बड़ी बात 'शुऊर'
ज़िंदगी की ज़रूरतों का यहाँ
नहीं ख़स्ता-हाली पे ना-मुतमइन हम
सामाँ तो बेहद है दिल में
मुस्कुराए बग़ैर भी वो होंट
बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है
अच्छों को तो सब ही चाहते हैं
कहाँ है शैख़ को सुध-बुध मज़ीद पीने की
आदमी बन के मिरा आदमियों में रहना
इश्क़ तो हर शख़्स करता है 'शुऊर'