कहाँ है शैख़ को सुध-बुध मज़ीद पीने की
नशा उतार गए तीन चार जाम उस का
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हवस बला की मोहब्बत हमें बला की है
कभी रोता था उस को याद कर के
कड़ा है दिन बड़ी है रात जब से तुम नहीं आए
तिरे होते जो जचती ही नहीं थी
तेरी आस पे जीता था मैं वो भी ख़त्म हुई
हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
ख़त्म हर अच्छा बुरा हो जाएगा
कोई ज़ंजीर नहीं तार-ए-नज़र से मज़बूत
सिर्फ़ उस के होंट काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं
शक नहीं है हमें उस बुत के ख़ुदा होने में
मोहब्बत रही चार दिन ज़िंदगी में
ऐसे देखा है कि देखा ही न हो