तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन
रात सहरा-ए-अना से मैं हिरासाँ गुज़रा
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वो कारवान-ए-बहाराँ कि बे-दरा होगा
मेरी सोच लरज़ उट्ठी है देख के प्यार का ये आलम
तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था
चाँद मेरे घर में उतरा था कहीं डूबा न था
वफ़ा निगाह की तालिब है इम्तिहाँ की नहीं
ज़ात का आईना जब देखा तो हैरानी हुई
मैं जिस को राह दिखाऊँ वही हटाए मुझे
ज़मीं से ता-ब-फ़लक कोई फ़ासला भी नहीं
कभी ख़याल के रिश्तों को भी टटोल के देख
हम भी नादाँ हैं समझते हैं कि छट जाएगी
ढूँढता हूँ सर-ए-सहरा-ए-तमन्ना ख़ुद को