सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
जैसे धनक निकलती है अब्र-ए-सियाह में
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तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
लुट रही है दौलत-ए-दीदार क़ैसर-बाग़ में
खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने