सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
तिरा फ़साना तुझी को सुनाता रहता हूँ
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रौशनी में किस क़दर दीवार-ओ-दर अच्छे लगे
ग़ैरों को क्या पड़ी है कि रुस्वा करें मुझे
सच बोल के बचने की रिवायत नहीं कोई
ये लोग ख़्वाब बहुत कर्बला के देखते हैं
ये ताएरों की क़तारें किधर को जाती हैं
तलब की राहों में सारे आलम नए नए से
हवा के अपने इलाक़े हवस के अपने मक़ाम
सब इक चराग़ के परवाने होना चाहते हैं
परिंद पेड़ से परवाज़ करते जाते हैं
आते हैं बर्ग-ओ-बार दरख़्तों के जिस्म पर
जम गई धूल मुलाक़ात के आईनों पर
जिसे न मेरी उदासी का कुछ ख़याल आया