फिर मिरी आँख हो गई नमनाक
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है
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मेहमान
तिरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं
मुजरिम-ए-सरताबी-ए-हुस्न-ए-जवाँ हो जाइए
कुफ़्र क्या तसलीस क्या इल्हाद क्या इस्लाम क्या
आज भी
सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
रूदाद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त उन से हम क्या कहते क्यूँकर कहते
बताऊँ क्या तुझे ऐ हम-नशीं किस से मोहब्बत है
नहीं ये फ़िक्र कोई रहबर-ए-कामिल नहीं मिलता