बस एक जान बची थी छिड़क दी राहों पर
दिल-ए-ग़रीब ने इक एहतिमाम सादा किया
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देता था जो साया वो शजर काट रहा है
मेरी तरह टूटे आईने में उस ने भी
तेरी तो 'बिल्क़ीस' निराली ही बातें हैं
नहीं है ख़्वाब दीवाने का हस्ती
कब एक रंग में दुनिया का हाल ठहरा है
शाम से हम ता सहर चलते रहे
हम तो बेगाने से ख़ुद को भी मिले हैं 'बिल्क़ीस'
दीवार-ओ-दर में सिमटा इक लम्स काँपता है
जिन में खो कर हम ख़ुद को भी भूल गए हैं
हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था
बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया
ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से